जंगली और परम्परागत किस्मो का सुरक्षा कवच
०--बाबूलाल दाहिया
यह एक जंगली भिंडी है जिसे कस्तूरी भिंडी भी कहा जाता है।यू तो यह खेतो की मेड या झाड़ झंखाड़ के बीच अपने आप नेशर्गिक ढंग से जमती और अपना वंश परिवर्धन करती रहती है।
पर जबलपुर के हमारे मित्र श्री अनिल कर्ण जी ने इसे अपने गमले में उगा रखा है।
इस चित्र को बड़ा करके देखने से मालुम होता है कि हमारी अनेक अनाजो और सब्जियो की जंगली य परम्परागत प्रजातियाँ अपनी सुरक्षा के लिए किस प्रकार सुरक्षा कवच बना लेती है ?
बस यही सब है उनका यहाँ की परिस्थितिकी में अपने को हजारो साल से सुरक्षित रख पाने का रहस्य जिनमे हम कुछ को समझ ही नही पाते।
इसे गौर से देखिए? इस भिंडी ने कीट ब्याधि से बचने के लिए अपने शरीर में बड़े बड़े रोये उगा रखे है।यह रोये इतने चोख है कि भिंडी फल में आक्रमण करने वाले अनेक कीड़े इसमें बिध कर मरे हुए स्पस्ट दिख रहे है।
पर मनुष्य रूपी प्रकृति के इस अनूठे दुष्ट जंतु से यह भिंडी भी अपने को नही बचा पाई । क्योकि वह इसे भी भून और भुर्ता बना कर खा लेता है।
इसलिए प्रकृति पर्यावरण य जैव बिबिधता को अगर किसी से खतरा है तो कुदरत के इसी विलक्षण प्राणी से।
सौ दो सौ वर्षो बाद यह प्राणी तो अपनी करतूतों से नष्ट होगा ही पर उसके पहले समूचे जीव जगत को ही ले डूबे गा।